Akhir kyu movie download review
फिल्म का शीर्षक ऐक प्रश्नार्थ सूचित करता है , जो की समाज के भेदभावभरे ढाँचे को ऊँगली निर्देश करता है । जिसके लिये फिल्म की नायिका निशा (स्मिता पाटिल )की दर्द एंव संघर्ष भरी जीवन कथा पर ऐक दृष्टि डालना जरूरी है ।निशा ऐक लेखिका है , शुरुआती दृश्य में उसकी किताब "परिक्रमा "का विमोचन दिखाया जाता है , यह उसकी आत्मकथा है । उनके कुछ शब्द इस प्रकार है :- "गंगा किनारे बसे गाँव बसंतपुर में मेरा छोटा सा घर था , बहा माँ थी , बापू थे , दादी थी औऱ छोटी सी निशा यानी मै । बहुत धुंधली सी यादें बाकी है अब तो क्यूँ की जब तक मै समजदार होती , प्रकृति की बेसमज ने हमारे गाँव को बाढ़ की चपेट में ले लीया , सब खत्म हो गया , मुठ्ठीभर लोगो को छोड़ -जिसमे ऐक अभागी मै भी थी , खबर पाते ही शहर से मेरे मामा आए और मुजे साथ में ले गये । लेकीन सच कहूँ घर का एहसास मुजे बहा हुवा ही नही । क्यूँकि मामी (शोभा खोटे )और उनकी बेटी इंदु (टीना मुनीम ) के लिये मैं ऐक बोज के अलावा कुछ न थी । मामी बहुत ख़ुदगर्ज़ और गुस्सेल थी , इंदु अपनी इच्छा औऱ फेशनपरस्ती के लिये कोई भी हद तोड़ सकती थी । " देखते ही देखते समय गुजरता गया और निशा -इंदु जवानी की दहलीज पे पहुचे । इंदु को ऐक धनवान औऱ खूबसूरत जवान कबीर (राकेश रोशन ) से प्यार हो जाता है । लेकीन कबीर के दृष्टिकोण से पत्नी की परिभाषा ऐक आज्ञाकारी और परंपरागत सामजिक पेह्लु में ढली ऐक नारी थी , इंदु के स्वछंदी स्वभाव से दबी हुई निशा कबीर के इसी मापदंड के अनुरूप थी , इसी लिये कबीर ने इंदु क़ो नाराज कर निशा से शादी कीया । शादी के बाद, कबीर और निशा के संसार की गाड़ी सही चल थी , कुछ दिनो बाद ही निशा प्रेग्नंट हो गयी । business trip की आड़ में कबीर क़े गैर औरतो से चक्कर चल रहे थे जिस से भोली निशा अनजान थी । निशा की प्रेग्नेंसी को लेकर उसकी डॉक्टर कई complication बताती है और निशा को आराम देने क़े लिये बोलती है । इस बात को लेकर निशा की मामी इंदु को निशा की देखभाल क़े लिये उसके घर भेजती है । मौकेेे का फायदा उठा कर इंदु कबीर क़े क़रीब जाती है , उसके साथ नाजायज संबध बनाती है । निशा ऐक प्यारी सी बच्ची को जन्म देती है । अस्पताल से वापस लौटने पर निशा को इंदु और कबीर क़े बीच क़े गलत रिश्ते क़े बारे में पता चलता है । निशा टूट जाती है , दोनों को समजाती है , लेकीन कबीर समजने से इनकार करता है , निशा को उनके साथ adjust होने को बोलता है । निशा कबीर की बात से इनकार करती है घर छोड़ने का फैसला करती है, कबीर उसकी बेटी को भी निशा से छीन लेता है । मर्दो की बनाई हुई इस दुनिया से हिम्मत नही हारते हुवे संघर्ष करती है । उसी दौरान उसकी मुलाक़ात आलोक (राजेश खन्ना) से होती है । दोनों अच्छे दोस्त बन जाते है । आलोक अपनी भावनाए उसके ऊपर न्यौछावर करता है , निशा उस पर ध्यान नही देते हुवे अपने काम पे ध्यान देती है औऱ ऐक सफल लेखिका बनती है । संघर्षो क़े साथ निशा का जीवन गुजरता गया दुसरी ओर इंदु औऱ कबीर
क़े संबंध बिगड़ती हुयी आर्थिक स्थिति क़े साथ बिगडते गये, दोनों को की हुई गलती का एहसास होता है । समय क़े साथ निशा की लड़की शादी क़े लायक हो जाती है , बिगड़े हुवे आर्थिक हालात में कबीर को बेटी की शादी की चिंता होने लगती है ।
लेकीन निशा अपनी लिखी हुयी किताब क़े पब्लिशिंग राइट्स देकर अपनी रॉयल्टी ना लेकर बेटी की शादी में कबीर की सहायता करती है । बेटी की विदाई क़े बाद निशा कबीर से बेटी को अपनी माँ की पहचान कभी नही बताने का बचन लेती है , ताकी बेटी माँ का अतीत जानकर दुःखी ना हो । बेटी क़े प्रति अपनी जिमेदारी निभाकर निशा वापस लौटती है , तब आलोक उसे मिलता है और अपने रिश्ते को कायदे से नाम देकर अपनी जिंदगी जीने का समय आया ऐसा कहकर समजाता है । लेकिन निशा बढ़ती हुई उम्र की दुहाई देकर और परंपरागत सामजिक मूल्यों को आगे करके इनकार करती है । तब आलोक "आखिर क्यूँ ? "ऐसा सवाल करता है और बताता है की आदमी आपनी जिंदगी में किसी भी उम्र में शादी करके बहार ला सकता है , तो औरत क्यूँ नही ? साथ में माँग में सिंदूर भरकर उनके रिश्ते पर कायदे की मुहर लगाता है एवं फिल्म का शीर्षक यथार्थ होता है ।
फिल्म में किसी तरह क़े द्विअर्थी संवाद , अश्लीलता एवं हिंसा ना होने क़े कारण ऐक स्वच्छ फिल्म की श्रेणी में आती है ।ऐक औरत के जीवन का वो सफर जो उसे सही ताकत और पहचान की ओर लेकर जाता है । फ़िल्म के सभी गाने यादगार है । स्मिता पाटिल तो खुद अपने आप में अभिनय का पर्याय है । उनके अभिनय के बारे में बोलना सुरज को दिया बताने जैसा है फिल्म यह बात का संदेश देती है कि कितनी भी विकट परिस्थितियाँ हो इंसान को हालात के सामने लड़कर , हकारत्मक रहकर अपनी पहचान बनानी चाहिए एवं सामजिक रूप से आदमी और औरत का दर्जा समान होना चाहिए ।
क़े संबंध बिगड़ती हुयी आर्थिक स्थिति क़े साथ बिगडते गये, दोनों को की हुई गलती का एहसास होता है । समय क़े साथ निशा की लड़की शादी क़े लायक हो जाती है , बिगड़े हुवे आर्थिक हालात में कबीर को बेटी की शादी की चिंता होने लगती है ।
लेकीन निशा अपनी लिखी हुयी किताब क़े पब्लिशिंग राइट्स देकर अपनी रॉयल्टी ना लेकर बेटी की शादी में कबीर की सहायता करती है । बेटी की विदाई क़े बाद निशा कबीर से बेटी को अपनी माँ की पहचान कभी नही बताने का बचन लेती है , ताकी बेटी माँ का अतीत जानकर दुःखी ना हो । बेटी क़े प्रति अपनी जिमेदारी निभाकर निशा वापस लौटती है , तब आलोक उसे मिलता है और अपने रिश्ते को कायदे से नाम देकर अपनी जिंदगी जीने का समय आया ऐसा कहकर समजाता है । लेकिन निशा बढ़ती हुई उम्र की दुहाई देकर और परंपरागत सामजिक मूल्यों को आगे करके इनकार करती है । तब आलोक "आखिर क्यूँ ? "ऐसा सवाल करता है और बताता है की आदमी आपनी जिंदगी में किसी भी उम्र में शादी करके बहार ला सकता है , तो औरत क्यूँ नही ? साथ में माँग में सिंदूर भरकर उनके रिश्ते पर कायदे की मुहर लगाता है एवं फिल्म का शीर्षक यथार्थ होता है ।
फिल्म में किसी तरह क़े द्विअर्थी संवाद , अश्लीलता एवं हिंसा ना होने क़े कारण ऐक स्वच्छ फिल्म की श्रेणी में आती है ।ऐक औरत के जीवन का वो सफर जो उसे सही ताकत और पहचान की ओर लेकर जाता है । फ़िल्म के सभी गाने यादगार है । स्मिता पाटिल तो खुद अपने आप में अभिनय का पर्याय है । उनके अभिनय के बारे में बोलना सुरज को दिया बताने जैसा है फिल्म यह बात का संदेश देती है कि कितनी भी विकट परिस्थितियाँ हो इंसान को हालात के सामने लड़कर , हकारत्मक रहकर अपनी पहचान बनानी चाहिए एवं सामजिक रूप से आदमी और औरत का दर्जा समान होना चाहिए ।
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